Hindi Sahitya Ka Itihas by Acharya Ramchandra Shukla
काल-विभाजन
हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गए इतिहासों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखे गए हिन्दी साहित्य का इतिहास को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा था |
आज हिंदी बाल साहित्य की चौहद्दी इतनी विस्तृत हो चुकी है और उसकी गतियाँ इस कदर
अनेकायामी हैं कि उसका इतिहास लिखना और काल-विभाजन आसान नहीं रह गया। अलगअलग कालखंडों की आधार-सामग्री और रचनाओं का बहुत खोजबीन के बाद भी प्रचुरता से न मिल पाना एक समस्या है। आजादी से पहले के बाल साहित्यकारों की रचनाएँ बहुत श्रमपूर्वक ही उपलब्ध हो पाती हैं। यही स्थिति पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें दशक के बाल साहित्य की भी है। कहाँ-कहाँ से ये रचनाएँ उपलब्ध हो सकीं, बताने बैलूं तो खुद एक इतिहास बन जाए।
फिर एक मुश्किल और भ्रम की स्थिति बाल पुस्तकों के प्रकाशकों ने भी पैदा की है। किसी भी पुस्तक को अच्छी तरह खंगालने के बावजूद यह पता लगाना कि उसका पहला संस्करण कब आया था, लगभग असंभव सा है। कोई पुस्तक, जो पहली बार सन् 1960 या सन् 1977 में छपी थी, सन् 2017 में छपे उसके संस्करण पर दर्ज होगा-संस्करण 2017। इससे क्या पता चलता है? ऐसी भ्रमात्मक स्थिति में किसी लेखक के रचना-काल का निर्णय कैसे हो, या उस पुस्तक को किस कालखंड में रखकर अध्ययन किया जाए? इन सवालों ने कम नहीं उलझाया। तो भी निरंतर छानने और खोज-बीन से चीजें कुछ साफ हुई हैं और उससे काल-विभाजन के स्पष्ट आधार के साथ-साथ वाजिब तर्क और विचार भी उभरकर सामने आते गए। इस इतिहास-ग्रंथ में सन् 1900 से लेकर अब तक, यानी सौ वर्ष से अधिक अवधि के बाल साहित्य को मोटे तौर से तीन हिस्सों में बाँटा गया है और उसके उचित आधार-बिंदु कहीं-न-कहीं हमारे सामाजिक विकास की गति में भी देखने को मिलते हैं।
बेशक बड़ों के साहित्य की तरह बाल साहित्य भी देश या समाज की स्थितियों या बड़े बदलावों से निरपेक्ष या अप्रभावित नहीं रह सकता। इस लिहाज से आजादी से पहले लिखे गए बाल साहित्य और आजादी के बाद के बाल साहित्य में एक बुनियादी फर्क स्वभावतः देखने को मिलता है। आजादी से पहले स्वाधीनता आंदोलन की तेज आँधी ने बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों को भी मथा। ऐसे में स्वाभाविक रूप से चरित्र-निर्माण की एक तेज लहर हमें नजर आती है, जिसमें देश और समाज के लिए कुछ करने का जज्बा भी शामिल है। आजादी के बाद देश-निर्माण की भावना अधिक प्रबल होकर सामने आई।
इसी तरह नवें दशक के आसपास देश या समाज में हो रही तेज उथल-पुथल या एक तरह के मोहभंग का असर हिंदी के बाल साहित्य पर पड़ा। समकालीनता का आग्रह बढ़ा और अतीत-मोह से मुक्ति के साथ-साथ उसमें ऐसे विषय, विडंबनाएँ, नई-नई समस्याएँ और उनकी ऐसी तीखी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति उभरकर आई, जैसी पहले कभी न देखी गई थी। औद्योगीकरण की तेज बाढ़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के फैलाव के साथ-साथ जीवन में तेजी या एक तरह की 'दौड़' नजर आने लगी और इसने पारिवारिक-सामाजिक संबंधों पर गहरा असर डाला। यह एक नए तरह के मोहभंग और फिर से नए निर्माण का दौर था, जिसमें आदर्शों पर नहीं, जीवन यथार्थ और असलियत पर ज्यादा जोर था। बाल साहित्य में भी यह व्यापक परिवर्तन या कहें 'युगांतर' का दौर था। कमोबेश बाल साहित्य की सभी विधाएँ इससे प्रभावित हुईं और बाल कविता, कहानी, नाटक और उपन्यासों पर उसका अधिक असर दिखाई दिया।
आठवें दशक में जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के कारण पूरे देश और खासकर युवा पीढ़ी में आई जागृति की लहर और फिर इस दशक का अंत होते-होते उसके दुःखद अवसान के कारण यह एक तीव्र मोहभंग का दौर था, पर विडंबना और मोहभंग की यह अभिव्यक्ति जिस तरह बड़ों के साहित्य में हुई, वैसी गुंजाइश बाल साहित्य में न थी। हाँ, पुराने विषय और अभिव्यक्ति के पुराने तौर-तरीके छोड़कर, नए तेवर और एक नई स्वछंद अभिव्यक्ति की कोशिश बाल साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में नजर आने लगी। इस समय बाल साहित्य की रचना के लिए नई पीढ़ी के इतने लेखक एक साथ नजर आने लगते हैं कि यह खुद में किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं लगता। बेशक इनमें से अधिक लोग देर तक टिके नहीं, पर फिर भी उनके काम और योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
यों मेरा खयाल है, पिछले सौ वर्ष के बाल साहित्य के वर्गीकरण या काल-विभाजन में किसी तयशुदा जड़ रवैये के बजाय थोड़े लचीलेपन से काम लिया जाना चाहिए। अगर देश की सामाजिक-सांस्कृतिक दशा-दिशा और हिंदी बाल साहित्य के बदलते मिजाज पर एक साथ नजर डालें, तो मोटे तौर से हिंदी बाल साहित्य की पूरी विकास यात्रा को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है
1. प्रारंभिक युग (1901 से 1947 तक) 2. गौरव युग (1947 से 1980 तक) 3. विकास युग (1981 से अब तक)
प्रारंभिक युग को आप चाहें तो हिंदी बाल साहित्य का 'आदि युग' कह सकते हैं। यह 1901 से 1947 तक है, यानी स्वतंत्रता-पूर्व काल। यह वह समय है, जबकि गुलामी के बंधनों को काटने के लिए, बालकों के व्यक्तित्व-निर्माण की प्रेरणा से शुरू-शुरू में सायास बालोपयोगी रचनाएँ लिखी गईं-देशभक्ति
और उपदेशात्मकता के भार से अतिशय दबी हुई बाल कविता, कहानियाँ, नाटक, जीवनियाँ आदि, लेकिन जल्दी ही बाल साहित्य ने अपना 'सुर' पकड़ा और एक से एक अच्छी और मौलिक रचनाएँ सामने आने लगीं। निस्संदेह बाल कविताएँ उनमें सबसे आगे थीं और कहना न होगा कि बाल साहित्य की रंगारंग ध्वजा को लेकर आगे चलने और उसे पूरा गौरव दिलाने वालों में कवियों की पाँत सबसे लंबी और समृद्ध थी।
बाल कविता में उस दौर की हिंदी साहित्य की बड़ी और समर्थ प्रतिभाओं ने, जिनमें श्रीधर पाठक,
हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, ठाकुर श्रीनाथ सिंह, रामनरेश त्रिपाठी आदि थे, हस्तक्षेप किया और कुछ आगे चलकर हम बाल कविता को, अपनी शर्तों पर एक स्वतंत्र रूप-विधान लेते देखते हैं, जिसमें जीवन के बहुरंगे अक्स शामिल होते जाते हैं। फिर सोहनलाल द्विवेदी, स्वर्ण सहोदर
और विद्याभूषण विभु तो उस दौर के बेहद सक्षम और सही मायनों में सर्जनात्मक कवि हैं, जिन्हें हम हिंदी बाल कविता के 'शिखर व्यक्तित्व' कह सकते हैं। इन प्रतिभासंपन्न कवियों ने न सिर्फ एक से एक बेहतरीन कविताएँ लिखीं, बल्कि अच्छी कविता की एक समझ पैदा की। यों हिंदी बाल कविता की उपदेश से सृजनात्मकता की ओर यात्रा इसी दौर में शुरू हो गई थी।
इसी तरह कथा साहित्य में भी उस दौर की शीर्षस्थ हस्तियों ने हिस्सा लिया। प्रेमचंद ने उस दौर में न सिर्फ बच्चों के लिए बाल कहानियों की अनोखी पुस्तक 'जंगल की कहानियाँ' लिखी, बल्कि उन्होंने 'कुत्ते की कहानी' नाम से बड़ा ही सुंदर और कौतुकपूर्ण बाल उपन्यास लिखकर एक तरह से हिंदी में मौलिक बाल उपन्यास की नींव डाली। उनकी वीर दुर्गादास राठौर पर लिखी गई जीवनी 'दुर्गादास' भी
औपन्यासिक ढंग की है, बल्कि इसे किशोरों के लिए लिखा हिंदी का पहला बाल उपन्यास कह सकते हैं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, शिवप्रसाद सितारेहिंद, जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन, सुभद्राकुमारी चौहान, जहरबख्श, हंसकुमार तिवारी सरीखे लेखकों ने हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध किया, तो निराला जैसे दिग्गज ने ध्रुव, प्रह्लाद, भीष्म और महाराणा प्रताप जैसे प्रेरक व्यक्तित्वों की जीवनियाँ लिखकर बाल साहित्य के महत्त्व को रेखांकित किया। यही नहीं, निराला ने छोटे बच्चों के लिए 'सीख भरी कहानियाँ' भी लिखीं, जिनमें ईसप की कथाओं की नई, रोचक और कहीं अधिक रचनात्मक अभिव्यक्ति थी।
इस दौर में रामकुमार वर्मा समेत कई बड़े लेखकों ने बच्चों की ही भाषा और अंदाज में कई चुलबुले और समस्यामूलक नाटक लिखे, जिन्हें आसानी से मंचित किया जा सकता था। 'शिशु', 'बालसखा', 'वानर' सरीखी पत्रिकाओं ने कथा साहित्य और जीवनियों के अलावा बच्चों के लिए सटीक और उम्दा विज्ञान-लेखन पर भी जोर दिया और विज्ञान के नए-नए आविष्कारों और वैज्ञानिकों की जीवनियों पर अच्छी पुस्तकें और स्तरीय लेख भी नजर आने लगे।
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हाँ, इसमें शक नहीं कि बाल साहित्य के प्रारंभिक दौर में बाल कविता अन्य विधाओं की तुलना में कहीं अधिक तेज रफ्तार से चली और उसमें समृद्धि और लाघव अधिक नजर आने लगा। दिलचस्प बात यह है कि हिंदी बाल कविता में आगे चलकर जो रूप और प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ीं, चाहे नाटकीय ढंग से कथात्मक कविताओं का चलन हो या फिर ध्वन्यात्मक प्रभावों के जरिए बच्चों के मन को रिझाने और प्रभावित करने की कोशिश, बीज रूप में ये सभी चीजें हिंदी कविता के प्रारंभिक दौर में मिल जाती हैं। यहाँ तक कि यह दौर शिशुगीतों के लिहाज से उन्नायक दौर भले ही न रहा हो, पर रामनरेश त्रिपाठी, विद्याभूषण विभु सरीखे प्रतिभासंपन्न कवियों के कुछ इतने अच्छे शिशुगीत इस कालखंड में मिल जाते हैं कि वे आज भी हमें एक मयार लगते हैं। ऐसे ही बच्चे के स्वतंत्र व्यक्तित्व की चेतना पर जोर देनेवाली बाल कविताएँ भी इस दौर में लिखी गईं और खूब लिखी गईं। रमापति शुक्ल सरीखे कवियों की कविताएँ इस लिहाज से अपने समय से इस कदर आगे हैं कि उन्हें पढ़कर हम चकित रह जाते हैं।
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