राजस्थान की लोककथाएँ हिंदी में : महेंद्र भानावत हिंदी पुस्तक - कहानी

राजस्थान की लोककथाएँ हिंदी में : महेंद्र भानावत हिंदी पुस्तक - कहानी  | Rajasthan Ki Lok kathayen in Hindi : Mahendra Bhanawat   Hindi  Book – Story (Kahani) 
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ऋतुओं का बनना

सूरज नारायण प्रतिदिन ही दुनिया को जगाने निकलते। एक दिन उनकी घरवाली रानादे ने उनको रोकना चाहा। इस पर सूरज नारायण बोले, "मुझे प्रतिदिन ही दुनिया को जगाने तथा सभी जीवों की तरह कीड़ी यानी चींटी को कण तथा हाथी को मण जैसी खाने-पीने की व्यवस्था करनी होती है।" रानादे बोली, "किसी को भूले तो नहीं?" सूरज ने जवाब दिया, "जहाँ तक याद पड़ता है, कोई छूटता नहीं है।"

सूरज नहा-धोकर तैयार हुए। रानादे ने तिलक किया। उस पर चावल चढ़ाया। ऐसा करते एक चींटी डिबिया में बंद कर दी। सूरज नारायण ने एक चावल उस डिबिया में डाल दिया। इसका पता रानादे को नहीं पड़ा।

संध्या हुई। सूरज घर लौटे। रानादे ने पूछा, "किसी को वंचित तो नहीं रखा।" सूरज बोले, "शायद ही।" यह सुन रानादे ने डिबिया खोली। देखा तो चींटी मुँह में चावल लिये थी।

दूसरे दिन सूरज अपनी माँ से जाने की स्वीकृति के लिए पहँचे। बोले, "माताजी, मेरे जाने पर पीछे से कोई आ जाए, तो उसकी इच्छानुसार भोजन करा देना, पर रहने के लिए निवास मत देना।"

यह कह सूरज नारायण घर से निकले। पीछे से एक कोढ़ी आया और रोटी की माँग की। रानादे ने उसे रोटी दी। कोढ़ी बोला, "मेरे मुँह में छाले हो रहे हैं, सो मैं ठंडी रोटी नहीं खा सकता। मुझे तो तैंतीस तरकारियों और बत्तीस भोजन वाला जीमण जीमने की मन में आ रही है।" रानादे ने यह बात अपनी सासूमाँ को जाकर कही कि कोढ़ी की कोढ़ झर रही है, पर बड़ा स्वादु लगता है। खाने के जैसे उसे सबड़के आ रहे हैं। यदि अच्छा भोजन नहीं दिया तो बोला, शाप दे दूँगा।"

सासूमाँ बोली, "जो माँगे, सो दो । उलझो मत, पर सचेत रहना।" रानादे ने उसकी चाह के अनुसार स्वादिष्ट भोजन बनाया। कोढ़ी बोला, "सूरज नारायण के महलों में जीपूँगा।" महल में थाल सजाया तो कोढ़ी बोला, "आप भी मेरे साथ जीमो।" रानादे उसके साथ भोजन करने में ठिठकी।

इतने में कोढ़ी ने सहन किरण रूप धारण किया। रानाले चौंकी, बोली, "भगवन्, आपने मेरे साथ छल किया।" यह सुन सूरज नारायण बोले, "आपने भी मेरे साथ कम नहीं बिताई।" दोनों रातभर महलों में रहे।

रानादे को कोढी के साथ महल में कैद जान सासुमाँ कई तरह के संकल्पविकल्प से घिर गई। वह महलों के बाहर बेचैनी से रात भर चक्कर काटती रही। राणादे को बुरी तरह डाँटती-डपकारती, आप-आप से कहती सुनती रही, "सूरज मिलेगा, तब उसे कहकर सजा दिलाऊँगी।"

सुबह हुई। सूरज नारायण उठे। जाने को हुए तो रानादे बोली, "माँ से मिलकर सारा भेद खोलकर जाना, नहीं तो मुझे उनसे डाँट सुननी पड़ेगी।" सूरज नारायण अपनी एक किरण ढाल के नीचे छिपा बोले, "इसे ढोलिये के नीचे ढक देना। जरूरत समझो तो माताजी को बता देना।"

यह कह सूरज नारायण दुनिया को जगाने निकले। इधर रानादे शयनकक्ष से बाहर निकली। सासूमाँ की निगाह ज्यों ही उस पर पड़ी कि वह बरसीं, बोलीं, "सारी रात उस कोढ़ी के साथ रहते तुझे शर्म नहीं आई? क्या करती रही उस कोढल्ये के साथ?"

रानादे थर-थर काँपने लगी। सासूमाँ के पाँवों में पड़, अति विनम्र हो बोली, "वह कोढ़ी नहीं था। आपके ही लाड़ले सपूत, मेरे भरतार थे।"

सासूमाँ को विश्वास नहीं हुआ। वह उन्हें महल में ले गई और ढोलिया के नीचे छिपाई गई किरण बताई। सासूमाँ का गुस्सा बहू से उतरा, किंतु सूरज नारायण पर उतनी ही तेजी लिये तमतमाहट के साथ चढ़ा। भागती-भागती अपने हाथ में थामी लाठी ठकठकाती सूरज नारायण की सभा में जा पहुंची।

दूर से माँ को देख सूरज नारायण जैसे सभासीन थे, वैसे ही उठे। माँ के पास पहुँच चरण-वंदन किया। पूछा, "आज अचानक यहाँ कैसे पधारना हुआ?" माँ बोली, "तूने मेरे साथ छल किया है। मैं सारी रात तेरे लिए तड़फती रही। तेरे पर गुस्सा किए बलती-जलती रही। आँसू बहाती, रोती-बिलखती रही। क्या कहूँ? जैसी मेरी दशा हुई, वैसी तेरी हो।"

यह सुनते ही सूरज माँ से लिपट गए। बोले, "बस करो माँ, ऐसा शाप मत दो। दुनिया का जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा।"

उसकी चाह के अनुसार स्वादिष्ट भोजन बनाया। कोढ़ी बोला, "सूरज नारायण के महलों में जीपूँगा।" महल में थाल सजाया तो कोढ़ी बोला, "आप भी मेरे साथ जीमो।" रानादे उसके साथ भोजन करने में ठिठकी।

इतने में कोढ़ी ने सहन किरण रूप धारण किया। रानाले चौंकी, बोली, "भगवन्, आपने मेरे साथ छल किया।" यह सुन सूरज नारायण बोले, "आपने भी मेरे साथ कम नहीं बिताई।" दोनों रातभर महलों में रहे।

रानादे को कोढी के साथ महल में कैद जान सासुमाँ कई तरह के संकल्पविकल्प से घिर गई। वह महलों के बाहर बेचैनी से रात भर चक्कर काटती रही। राणादे को बुरी तरह डाँटती-डपकारती, आप-आप से कहती सुनती रही, "सूरज मिलेगा, तब उसे कहकर सजा दिलाऊँगी।"

सुबह हुई। सूरज नारायण उठे। जाने को हुए तो रानादे बोली, "माँ से मिलकर सारा भेद खोलकर जाना, नहीं तो मुझे उनसे डाँट सुननी पड़ेगी।" सूरज नारायण अपनी एक किरण ढाल के नीचे छिपा बोले, "इसे ढोलिये के नीचे ढक देना। जरूरत समझो तो माताजी को बता देना।"

यह कह सूरज नारायण दुनिया को जगाने निकले। इधर रानादे शयनकक्ष से बाहर निकली। सासूमाँ की निगाह ज्यों ही उस पर पड़ी कि वह बरसीं, बोलीं, "सारी रात उस कोढ़ी के साथ रहते तुझे शर्म नहीं आई? क्या करती रही उस कोढल्ये के साथ?"

रानादे थर-थर काँपने लगी। सासूमाँ के पाँवों में पड़, अति विनम्र हो बोली, "वह कोढ़ी नहीं था। आपके ही लाड़ले सपूत, मेरे भरतार थे।"

सासूमाँ को विश्वास नहीं हुआ। वह उन्हें महल में ले गई और ढोलिया के नीचे छिपाई गई किरण बताई। सासूमाँ का गुस्सा बहू से उतरा, किंतु सूरज नारायण पर उतनी ही तेजी लिये तमतमाहट के साथ चढ़ा। भागती-भागती अपने हाथ में थामी लाठी ठकठकाती सूरज नारायण की सभा में जा पहुंची।

दूर से माँ को देख सूरज नारायण जैसे सभासीन थे, वैसे ही उठे। माँ के पास पहुँच चरण-वंदन किया। पूछा, "आज अचानक यहाँ कैसे पधारना हुआ?" माँ बोली, "तूने मेरे साथ छल किया है। मैं सारी रात तेरे लिए तड़फती रही। तेरे पर गुस्सा किए बलती-जलती रही। आँसू बहाती, रोती-बिलखती रही। क्या कहूँ? जैसी मेरी दशा हुई, वैसी तेरी हो।"

यह सुनते ही सूरज माँ से लिपट गए। बोले, "बस करो माँ, ऐसा शाप मत दो। दुनिया का जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा।"


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Title - राजस्थान की लोककथाएं

ISBN - 9789355210524
Author - महेंद्र भानावत / Mahendra Bhanawat 
To Buy - https://www.amazon.in/dp/9355210523/ To Read Full Book

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