जम्मू-कश्मीर की लोक कथाएँ : गौरी शंकर रैना’ द्वारा हिंदी पुस्तक – कहानी | Jammu and Kashmir Ki Lok Kathayen : by Gauri Shanker Raina Hindi Book – Story (Kahani)
जम्मू-कश्मीर में किस्से-कहानियाँ सुनाने की परंपरा पुरानी है। 'कथा सरित्सागर' को कश्मीर में ही रचा गया था। इसके रचनाकार महाकवि सोमदेव ने जहाँ वेतालपच्चीसी, किस्सा तोता-मैना तथा सिंहासन बत्तीसी के कथानक इसमें समेट लिये, वहीं भारतीय परंपराओं और संस्कृति को प्रस्तुत किया है। कश्मीर के राजा अनंतदेव के शासनकाल में सोमदेव ने इस कथासागर की रचना रानी सूर्यमती के मनोरंजन के लिए 1070 ई. में की थी।
Jammu and Kashmir Ki Lok Kathayen |
परंतु उनका उद्देश्य यह भी था कि आने वाली पीढ़ियाँ इससे लाभ उठा सकें। मिस्त्र
और 'कथा सरित्सागर' की कुछ कहानियों में समानता नजर आती है, जिससे यह सिद्ध होता है कि हमारे कथा-साहित्य का प्रभाव दूर-दूर तक फैला है। __ कथा बाँचने की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है और कथा को सुनानेवाला अकसर उन कहानियों में लोक-संस्कृति की झलक जहाँ-तहाँ शामिल करता था। ये कथाएँ लोकभाषा में सुनाई जाती हैं। कश्मीरी लोक-कथाओं में सर्प, साँप आदि के मनुष्य का रूप धारण का जिक्र बार-बार आता है। इसका कारण यह है कि यहाँ के मूल निवासी नाग-पूजा में विश्वास रखते थे। ऐसी लोक-कथाओं में पुराण-कथाओं, यथार्थ और फंतासी का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
विश्व के लोक-साहित्य में विचारों से भरा-पूरा और उत्कृष्ट माने जाना वाला कश्मीरी लोक-कथाओं का साहित्य सुननेवालों और प्राच्यविदों को वर्षों से प्रभावित करता आ रहा है। इन मौखिक कथाओं को कागज पर उतारने का उपक्रम 19वीं सदी में तब शुरू हुआ, जब कुछ विद्वानों ने इन कहानियों को पंडित मुकुंद बायू, शिव बायू, पंडित नारायण कौल, पंडित शिवराम, चड्ढा राम, रहमान जू, मेहतार शेर सिंह जैसे कथावाचकों से सुनकर कलमबंद किया।
जे. हिनटन नोल्स 1880 ई. में कश्मीर आए थे, उन्होंने कश्मीर में रहते हुए इन लोक-कथाओं को अंग्रेजी में कलमबंद कर 1893 में प्रकाशित किया। इसी प्रकार ऑरेल स्टीन ने भी 'राजतरंगिणी' पर शोध करते समय कई लोककथाओं और लोकगीतों को भविष्य के लिए कागज पर उतारा। फिर कश्मीरी में भी इन कथाओं की लिखित रूप में प्रस्तुति हुई। मैंने इन्हीं में से कुछ कथाओं को हिंदी में रूपांतरित किया है। डोगरी लोक-कथाओं को प्रो. नॉरमैन ब्राउन ने जम्मू में 1923-24 में इकट्ठा किया था; मगर उनका संग्रह प्रकाशित न हो सका। बाद में उनकी पांडुलिपि 'तवी टेल्ज' को जापान की एक शोधकर्ता नोरिका मयेदा ने अपने शोध-प्रबंध में शामिल कर लिया। भारतीय लोक-साहित्य के अध्ययन के लिए नोरिका को पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय से अध्येतावृति प्राप्त हुई थी। तवी टेल्ज' का अध्ययन करते हुए शोधकर्ता ने मैरी फ्रेरे की अंग्रेजी भाषा में पहली क्षेत्र-संग्रहित लोक-कथा-संग्रह का भी अध्ययन किया, जो 1868 में प्रकाशित हुआ था। नोरिका मानती हैं कि लोक-कथाओं के सूत्र दूसरे क्षेत्रों की लोकपरंपराओं से प्रेरित रहे हैं तथा समानता भी पाते हैं और ये भारतीय लोक-साहित्य की समृद्ध निधि का हिस्सा हैं।
ये कथाएँ संस्कृति और समाज का परिदृश्य प्रस्तुत करने के साथ ही देवताओं, राजा-रानियों तथा साधारण व्यक्तियों के चरित्रों द्वारा नैतिकता और सदाचार का संदेश भी देती हैं। मैं ऐसी कथाओं से बचपन में जम्मू के शहीदी चौक में रहते हुए परिचित हुआ था। पड़ोस की दादीमाँ अकसर अपने पोते-पोतियों के साथ मुझे भी ऐसी लोक-कथाएँ सुनाती, जो प्रेरणादायक तथा मनोरंजक होतीं। उन्हीं में से एक 'पुष्पवती' स्मृति-पट में उतार कर इस संकलन में प्रस्तुत की है।
मैं श्री वेद राहीजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मुझे कुछ पुरानी डोगरी कथाएँ उपलब्ध करा दी। डोगरी के प्रतिभावान युवा रचनाकार डॉ. यशपाल निर्मल का भी आभारी हूँ, जिन्होंने कुछ डोगरी लोक-कथाएँ भेज दीं।
लोक-कथाओं का खजाना भरा-पूरा है, परंतु इस संकलन को ध्यान में रखते हुए केवल उन कथाओं को ही चुना गया है, जो लोकप्रिय रही हैं और कुछ ऐसी भी हैं, जो अभी तक सामने नहीं आई हैं। आशा है कि पाठक इस श्रमसाध्य उपक्रम की सराहना करेंगे।
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